तलाक की बढ़ती हुए घटनाओं पर दीन पसंद हज़रात की चिंता अपनी जगह सही है, उलेमा की जिम्मेदारी बनती है कि वो इस रुझान पर अपना ध्यान आकर्षित करें, लोगों को बतलाएं कि इस्लाम में रिश्तए अज्दवाज की किस कदर अहमियत है, और रिश्ते को मुनकता करने से खानदान और समाज पर कितना खराब प्रभाव पड़ता है, अफसोस की बात ये है कि इस्लामी समाज बड़ी तेजी के साथ अपने मूल्यों और परंपराओं से मुन्हरिफ होता जा रहा है, पश्चिमी सभ्यता की नक़ल ने हमारे समाज की स्थिति खराब कर रखी है, सह-शिक्षा, मर्दों और औरतों का आज़ादाना तौर पर मिलना जुलना, बेदीनी का माहौल, आर्थिक समस्याएं, फ़ोवाहिश की कसरत, टीवी और इंटरनेट का गलत इस्तेमाल, इन सब चीज़ों ने मिलकर एक ऐसा माहौल पैदा कर दिया है जहां निकाह जैसे पाकीज़ा रिश्तों की अहमियत का एहसास मफकूद होता जा रहा है, आश्चर्यजनक बात ये है कि अब लड़कियां खुद तलाक की मांग करने लगी हैं, कभी कभी इस मांग के पीछे कोई ठोस और मज़बूत आधार नहीं होता, सिर्फ इसलिए तलाक मांगी जाती है, या ख़ुला किया जाता है कि निकाह का रिश्ता स्वतंत्र जीवन शैली में रुकावट बन रहा था।
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