अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
28 अगस्त 2017
एक तरफा तौर पर अपनी बीवी को तलाक देने का मुस्लिम मर्द का हक़ एक बैठक में तीन तलाक का अमल अब इतिहास की नज़र हो चुका है। देश की सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक और बराबरी के अधिकार के खिलाफ करार दिया है स्पष्ट तौर पर उन सभी मुस्लिम मर्दों और औरतों के दरमियान ख़ुशी की लहर मौजूद है। जिन लोगों ने एक बैठक में तीन तलाक के अमल के खिलाफ मुहीम का आगाज़ किया था। भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन (बी एम एम ए) जैसी संगठन और दुसरे अनेकों मुस्लिम महिलाओं को इस मामले पर इतने लम्बे समय तक इस मजबूत मुहीम को जारी रखने और ना केवल विभिन्न सरकारों से बल्कि मुस्लिम रहनुमाओं की ओर से भी अनेकों मुश्किलों और परेशानियों का सामना करने पर मुबारक बाद दी जा सकती है। हिंदुत्वा ब्रिगेड के एजेंट कहे जाने से लेकर गैर मुस्लिम करार दिए जाने तक उन महिलाओं ने अपनी ही बिरादरी के लोगों की जानिब से तास्सुब व तंग नज़री और लान तान का पुरी बहादुरी के साथ मुकाबला किया और यह महिलाएं अपने उस यकीन पर साबित कदम रहीं की अब मुस्लिम पर्सनल लॉ को बेहतर करने का समय आ चुका है।
यह जानना काफी दिलचस्प है की तलाक पर मुस्लिम कानून को बेहतर बनाने के हक़ में उठने वाली आवाजें इससे कहीं अधिक पुरानी हैं जितना की आम तौर पर गुमान किया जाता है । १९२० की दशक में आल इण्डिया मुस्लिम लेडीज़ कान्फ्रेंस ने अपने एक वार्षिक कान्फ्रेंस में तीन तलाक का मसला उठाया था। उनकी दलील उस समय भी ऐसी ही थी जो आज मुसलमान महिलाओं की तंजीम पेश कर रही है। आल इण्डिया मुस्लिम लेडीज़ कान्फ्रेंस महिलाओं की पहली ऐसी तंजीम थी जिसने जुबानी तौर पर तीन तलाक के खिलाफ मुहिम का आगाज़ किया और तलाक के मामले में कुरआन करीम के अनुसार सहीह नियम बनाने पर जोर दिया। उन्होंने एक मिसाली निकाह नामा तैयार किया था जिसमें तलाक के कवायद का निर्धारण किया गया था। जिसके अनुसार मर्द को अपनी बीवियों को तलाक देने के लिए एक उचित कारण उपलब्ध कराना होता था। तलाक हो जाने की स्थिति में गुजारे भत्ते की आपूर्ति के लिए कानून पेश किए गए थे। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा की निकाह नामे ने औरतों को होने वाले शौहर से नियम व कायदे की तामील करवाने के लिए असीमित विकल्प दिए हैं और निकाह केवल उसी स्थिति में हो सकता है जब पति लिखित तौर पर यह स्वीकार करे की वह उन मांगों को पूरा करेगा। इस मिसाली निकाह नामे में एक शक यह थी की अगर पति पत्नी की अनुमति के बिना दूसरी शादी कर लेता है, तो फिर उसका पहला निकाह रद्द हो जाएगा। गोया की इस मिसाली निकाह नामे में ऐसे ऐसे शर्त शामिल किए गए थेजिनकी बुनियाद पर बहु विवाह का अमल कठिन और मुस्लिम खानदानों तक सीमित होता था। मुस्लिम लेडीज़ कान्फ्रेंस की पहुँच बहुत सीमित थी इसलिए यह भोपाल और हैदराबाद के शिक्षित और सभी हलकों या ‘रौशन ख्याल’ मुस्लिम वर्ग तक ही सीमित था। कभी भी बड़े पैमाने पर इसका रुझान पैदा नहीं हुआ। और इसके बाद इस देश के बटवारे ने इस आन्दोलन को समाप्त कर दिया क्योंकि इस मुहीम के अधिकतर कार्यकर्ता फ़ौरन पाकिस्तानी शहरी हो गए और भारतीय मुस्लिम महिलाओं के लिए कोई नेतृत्व नहीं बची।
भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन जैसी तंजीमों ने मुस्लिम सुधार की इतनी पुरानी रिवायत पर काम किया लेकिन भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की बदौलत हमें यह जरुर कहना चाहिए की पहली बार उसने पर्सनल लॉ में सुधार के मामले को मुसलामानों के बीच इतने बड़े पैमाने पर पेश किया है। इसलिए, सुप्रीम कोर्ट ने फौरी तौर पर तीन तलाक को असंवैधानिक करार देकर लाखों मुस्लिम महिलाओं के मांगों का जवाब है। शायद पहली बार हमारे पास महिलाओं के बीच एक ऐसी निष्पक्ष संगठन मौजूद है जो इस मुल्क के शहरी होने की बुनियाद पर परिवर्तन पैदा करने और अपने मांग रखने के लिए प्रतिबद्ध है। अब सवाल यह पैदा होता है की क्या उनका सफ़र फौरी तौर पर तीन तलाक के फैसले पर ख़तम हो चुका है या यह मुहिम उन अनगिनत अभियानों में से केवल एक है जिन्हें महिलाओं की यह तंजीम शुरू करने वाली है। मुस्लिम महिला आन्दोलन जैसी तंजीमें पहले ही यह एलान कर चुकी हैं की वह अगले चरण में इस देश के अन्दर मुस्लिम पर्सनल लॉ में इंसाफ पर आधारित एक व्यापक लैंगिक कानून के लिए मुहिम का आगाज़ करेंगी। शायद वह इसे एक विजय करार देने में सहीह हैं लेकिन बहुत चोटी जीत है।
वह हक बजानिब हैं की इस मुल्क में तलाक के उस निजाम को ख़तम करने में सत्तर साल गुज़र गए जो स्पष्ट तौर पर महिलाओं के खिलाफ था और जो आज उनकी मुफलिसी और बाद हाली की वजह भी है। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए की केवल एक बैठक में तीन तलाक के अमल को ही गैर कानूनी करार दिया गया है, एकतरफा तौर पर तलाक देने का हक़ हासिल है जिसे लैंगिक एतेबार से और भी न्यायवादी बनाना जरुरी है। इसी तरह बहु विवाह को भी गैर कानूनी बनाने के लिए मुहिम शुरू होनी चाहिए क्योंकि यह आज के दौर में एक हिकारत आमेज़ अमल है। क्या भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन और ऐसी दूसरी तंजीमें इस चैलेन्ज को स्वीकार करने के लिए तैयार होगी, यह तो केवल वक्त ही बताएगा। लेकिन उनके अज़म और हौसले को देखते हुए यह कहना उचित नहीं है की वह केवल इसी जीत पर संतोष कर जाएंगी।
बहुत बदकिस्मती की बात है की सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बावजूद मुसलामानों के अन्दर ऐसे वर्ग मौजूद हैं जो यह सोचते हैं की यह उनके मज़हब को बदनाम करने की साज़िश है और वह मुस्लिम पर्सनल लॉ को इलाही कानून के साथ खलत मलत कर देते हैं। जमीयत उलेमा ए हिन्द के इस बयान से की “हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पैरवी नहीं करेंगे” केवल यही प्रदर्शित होता है की वह भारतीय न्यायिक व्यवस्था पर कितना भरोसा रखते हैं। उनके लिए और मजहबी बुनियाद परस्तों की अक्सरियत के लिए यह मामला बहुत आसान है: अगर अदालत का फैसला उनके हक़ में होता है तो वह इसका स्वागत करते हैं, लेकिन अगर निर्णय उनके खिलाफ हो तो अदलिया “खुफिया मफ़ाद” के हाथों की कठपुतली बन जाती है। मदनी जैसे लोग मुस्लिम बिरादरी के लिए ज़िल्लत व रुसवाई का कारण हैं और इन्हीं जैसे लोग हिन्दू अतिवादियों के हाथों उम्मते मुस्लिमा को निशाना बनाए जाने के जिम्मेदार हैं जो बरमला दुनिया को यह बावर कराते हैं की मुसलमान इस देश और इसके अदलिया पर यकीन नहीं रखते। बदकिस्मती से मदनी जैसे लोगों ने मुस्लिम समाज के अन्दर अस्थिरता पैदा करने की कोशिश की है। निर्णय के बाद आने वाली खबरों से यह मालुम होता है की दरख्वास्त देने वालों को और फौरी तौर पर तीन तलाक के खिलाफ मुहिम चलाने वालों को अपने खानदान और बिरादरी के अन्दर बड़े पैमाने पर समाजी बाईकाट का सामना है। इससे हमें उम्मते मुस्लिमा की काबिले अफ़सोस हाल का अंदाज़ा होता है जो ऐसा लगता है की दायमी तौर पर पिछड़ों की हालत पर रहना चाहती है और मुसलमान एक ऐसे समाज के व्यक्ति होने पर संतुष्ट हैं की जिसपर लैंगिक न्याय के मामलों में घिरे हुए होने का आरोप है।
इस संघर्ष का उस समय तक जारी रहना जरुरी है जब तक आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ जैसी तंजीमें मुस्लिम समाज के अन्दर बेकार नहीं हो जातीं। सहीह विचारों के हामिल मुस्लिम पुरुषों और महिलाओं को यह लड़ाई जारी रखने की जरुरत है। लेकिन इस बात को भी दिमाग में रखना जरुरी है की इस संघर्ष में भारतीय महिला आन्दोलन जैसी महिला संगठनों को पेश पेश रहना जरुरी है। यह ख़ुशी की बात है की बहुत से तरक्की पसंद मुस्लिम मर्दों ने भी भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की हिमायत की है लेकिन उनकी कोशिशें उन तहरिकों की हिमायत तक ही सीमित होनी चाहिए उन्हें इस तहरीक के रहनुमा बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अंतिम मगर अहम् बात यह है की मुसलामानों के बीच समाजी सुधारों के मामले पर लोकतांत्रिक और लिबरल लोगों की खामोशी हैरान करने वाली है। कम से कम उन्हें भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन जैसी तंजीमों की हिमायत में खुल कर आना चाहिए था। इनकी खामोश मिजाज़ी इस बात की एक स्पष्ट निशानी है की इस्लाम और मुसलामानों के बारे में उनके ख्यालात पूर्ण रूप से मुबहम और अस्पष्ट हैं। भारतीय नागरिक की हैसियत से मुस्लिम महिलाओं ने खामोशी से एक साथ मिल कर अपने इंसाफ के हुसूल की तरफ पेश कदमी की है। जन बेज़ारी पर आधारित इस्लामी शिक्षाओं के आधार अपर पुरुषों के इस्तेहाक के विभिन्न किलों को ध्वस्त करने में तलाक का मामला केवल एक पड़ाव है।
URL for English article: http://www.newageislam.com/islam,-women-and-feminism/arshad-alam,-new-age-islam/instant-triple-talaq-judgment-and-after/d/112358
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