सुहैल अरशद, न्यू एज इस्लाम
कुरआन और दोसरे सभी आसमानी सहिफों में खुदा को निरंकार, बेमाहीत और लतीफ कहा गया हैl उसकी ज़ात को ना देखा जा सकता है, ना अंदाजा किया जा सकता है और ना उसे अक्ल पा सकती हैl उसे किसी भी माद्दी सूरत से पहचाना नहीं जा सकताl मगर इसके साथ ही साथ कुरआन यह भी कहता है कि वह सुनने, देखने, तदबीर करने और तखलीक करने और तबाह करने की सलाहियत रखता हैl इसी लिए कुरआन खुदा के संबंध में कहता है कि
فطرت اللہ التی فطرنا الناس علیہا
अल्लाह की फितरत वही है जिस पर उसने इंसान को बनाया (अल रूम:३०)
कुरआन को खुदा ने आँख, कान, नाक, हाथ और अक्ल दी जिसकी मदद से वह महसूस करता है, दोसरे जरूरी कार्य अंजाम देता है और गौर व फ़िक्र करता हैl मगर उसका देखना, उसका महसूस करना अंगों का कृतज्ञ है जबकि खुदा का देखना, सोचना, महसूस करना और बोलना अंगों का कृतज्ञ नहीं हैl वह असबाब का मोहताज नहींl कुरआन की एक आयत है
لیس کمثلہ شئی و ھوالسمیع البصیر (الشوری ٰ:۱۱
वह किसी चीज से मुमासिल नहीं है और वह समीअ और बसीर हैl
इस सबके बावजूद कुरआन में कुछ ऐसी आयतें हैं जिससे उपर्युक्त आयतों के मफहूम में पेचीदगी होती हैl क्योंकि इन आयतों में खुदा को इंसानी गुणों का हामिल बताया गया है जैसे:
“और बनाया हमने आसमान हाथ के बल से” (अल ज़ारियात: ४७)
फिर जब ठीक बना चुको और फूंको उसमें अपनी रूह तो तुम गिर पड़ो उसके आगे सजदे मेंl” (साद: २७)
अल्लाह की मुट्ठी में ज़मीन और आसमान दाहिने हाथ में लिपटा होगा क़यामत के दिन (अल ज़ुम्र: ७६)
यही नहीं हज़रात आदम अलैहिस्सलाम की तखलीक के बाद खुदा का फरिश्तों को उन्हें सजदा करने का आदेश और फिर शैतान का इनकार करना और इसके बाद खुदा और शैतान के बीच जो मुकालमा है वह भी पाठक के मस्तिष्क में उलझन पैदा करता हैl कुरआन में और भी कई आयतें और स्थितियां हैं जहां खुदा और बंदों और खुदा और फरिश्तों के बीच मुकालमा होता हैl इन आयतों से खुदा के वजूद की ताफ्हीम में इंसान को मुश्किलें पेश आती हैंl
इसके अलवा खुदा जो लैसा क मिस्लिही (जिसके जैसा कोई नहीं) है उसके लिए अर्श और कुर्सी का भी उल्लेख कुरआन में हैl कुरआन कहता है कि खुदा अर्श पर बिराजमान है और उसका अर्श बहोत बड़ा और विस्तृत हैl अर्श से संबंधित कुरआन में निम्नलिखित आयतें हैं:
“वह बड़ा मेहरबान अर्श पर कायम हुआl” (ताहा:५)
“जिसने बनाए आसमान और ज़मीन और जो कुछ इसके बीच में है छः दिन में फिर कायम हुआ अर्श परl” (अल फुरकान: ९५)
“बेशक तुम्हारा रब अल्लाह है जिसने पैदा किये आसमान और ज़मीन छः दिन में फिर करार पकड़ा अर्श परl” (अल आराफ़: ४५)
वही है ऊँचे दर्जों वाला मालिक अर्श काl” (अल मोमिनून: ५१)
“उसका अर्श पानी पर थाl” (हूद:७)
अल्लाह वही है जिसने बनाए आसमान और ज़मीं और जो कुछ इसके बीच है छः दिन में फिर कायम हुआ अर्श परl (अल सजदा: ४)
“और उस दिन आठ फरिश्ते तुम्हारे रब के तख़्त को उठाएं गे” (अल हाक्का:७१)
एक आयत में अर्श के लिए कुर्सी का शब्द भी प्रयोग किया गया है
“उसके कुर्सी की वुसअत आसमान से ज़मीन तक है” (अल बकरा: ३५२)
कुछ हदीसों में खुदा के अर्श को चार फरिश्तों के जरिये थामने का उल्लेख हैl और कुरआन में उल्लेखित है कि कयामत के दिन आठ फ़रिश्ते अर्श को उठाए हुए होंगेl
सवाल यह पैदा होता है कि जब खुदा किसी के जैसा नहीं है और वह दिखाई भी नहीं देता और उसका माद्दी वजूद भी नहीं है अर्थात वह किसी भी माद्दा से बना हुआ नहीं है तो फिर उसके लिए अर्श पर कायम होना का क्या मफहूम हैl’
अर्श पर खुदा के कायम होने से यह साबित नहीं होता कि अर्श पर कायम खुदा की कोई जिस्मानी हैयत है, अर्श पर वह कायम हुआ मगर कायम होने वाली ज़ात को अब भी सेगा ए राज़ में रखा गया हैl लेकिन बहर हाल, अर्श पे कोई ज़ात है जरुर जिसकी हैयत के संबन्ध में कुरआन खामोश हैl उसी ज़ात को बौद्ध धर्म में शौन्य कहा गया हैl आयतल कुर्सी में कहा गया है कि उसकी कुर्सी ज़मीन स्व आसमान तक मुहीत हैl इस आयत से तो यह मफहूम लिया जा सकता है कि खुदा की कुदरत ज़मीन से आसमान तक फैली हुई है और वह सारी कायनात का मालिक हैl कोई भी चीज उसके इख्तियार के दायरे से बाहर नहीं हैl कुरआन में कई जगहों पर रूह का ज़िक्र और कम से कम दो मौकों पर रूहुल कुदुस का ज़िक्र हैl जब मदीने के यहूदियों ने हज़रत मोहम्मद मुस्तुफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पूछा था कि रूह क्या है तो यह आयत उतरी:
तुझसे पूछते हैं रूह को, कह दे कि रूह है मेरे रब के हुक्म सेl और तुमको इल्म दिया है थोड़ा साl” (बनी इस्राईल: ५४)
कयामत के दिन रूह भी खुदा के आगे हाथ बाँध कर खड़ी होगीl
“जिस दिन खड़ी हो रूह और फरिश्ते कतार बाँध करl (अल अम्बिया:८३)
“चढ़ेंगे उसकी तरफ फरिश्ते और रूह उस दिन जिसका तूल है पचास हज़ार सालl” (अल मेराज-४)
“और फूंकी उसमें अपनी रूह” (अल सजदा:९)
अगर हम वेदों और उपनिषदों के दृष्टिकोण से देखें तो उनके यहाँ हकीकी खुदा तो निरंकार और सिफात से आरी है मगर उसने अपनी ताकत से अपना एक तबई कायम मुकाम बना दिया है जो इंसानी सिफात का हामिल हैl खुदाए हकीकी गैब के पर्दे में रह कर अपने उसी कायम मुकाम के जरिये से कायनात के सभी मामलों को देखता हैl उसे ब्रहम या हिरन्य गर्भ कहते हैंl हिरन्य गर्भ का अर्थ है Golden Wombl इसी हिरन्य गर्भ या ब्रह्मा से सारे कायनात की तखलीक हुई और इसके अन्दर ख़ालिक, पालनहार और तबाह करने वाली तीनों सिफात हैंl कुरआन जब रुहुल कुदुस कहता है तो गालिबन उससे मुराद यही हिरन्य गर्भ या ब्रह्मा है जो खुदा का तबई कायम मुकाम है और खुदा अपनी सारी मख्लुकात से उसी तबई कायम मुकाम के जरिये से interact करता हैl और जो मखलूक जिस सतह की होती है उसी की भाषा में बात करता हैl किसी भी मखलूक की यह ताकत नहीं कि वह सीधे खुदा से बात कर सके इसलिए जब हम कुरआन में देखते हैं कि वह शैतान से, आदम अलैहिस्सलाम की तखलीक के बाद बात करता है, या मूसा से कोहे तूर पर या मैदाने तुवा में इंसानों की भाषा में बात करता है, या हज़रात मरियम अलैहिस्सलाम को हमाल की हालत में खजूर के पेड़ को हिलाने की हिदायत इंसानों की भाषा में करता है तो असल में वह अपने तबई कायम मुकाम अर्थात रुहुल कुदुस या हिरन्य गर्भ या ब्रह्मा की शकल में बात करता हैl चूँकि ब्रह्मा या रुहुल कुदुस या हिरन्य गर्भ खुदाए हकीकी हैं इसलिए वह सब कयामत के दिन खुदा के सामने दस्त बस्ता खड़े होंगेl वेद या उपनिषद में ब्रह्मा या हिरन्य गर्भ के वजूद को विस्तार से बयान कर दिया गया है इसलिए वहाँ कोई कंफ्यूज़न नही हैl कुरआन में मुफ़स्सेरीन ने इस बिंदु पर अधिक ध्यान नहीं दिया हालांकि इस कंफ्यूज़न को दूर करना उनकी इल्मी जिम्मेदारी थी वरना कुरआन की आयतें self contradcitory मालुम होती हैं जबकि ऐसा नहीं हैl रुहुल कुदुस से मुराद खुदा का तबई कायम मुकाम है जो खुदा नहीं है बल्कि अपनी मख्लुकात से अपनी हकीकी ज़ात को छिपाए रखते हुए सम्पर्क रखने की एक हिकमत हैl उसी रुहुल कुदुस के जरिये से खुदा अपनी आला तरीन और अदना तरीन मखलूक से राबता रखता हैl वह कीड़ों और जानवरों से उनकी ज़हनी साथ और जुबान में बात करता है और इंसानों से उनकी ज़हनी साथ के लिहाज़ से उनकी भाषा में बात करता हैl फरिश्तों से intract करने का अवश्य कोई और तरिका होगाl इसलिए, खुदा जब कुरआन में कहता है कि वह लतीफ है और उसके जैसा कोई नहीं तो वह खुद अपनी ज़ात की हकीकत बयान करता है और जब वह खुद को इंसानी सिफात में ज़ाहिर करते हुए इंसान से मुकालमा करता है तो असल में वह नहीं बल्कि उसका तबई कायम मुकाम मुकालमा करता हैl इस दृष्टिकोण से दोनों तरह की आयतों को देखें तो फिर मफहूम का कंफ्यूज़न दूर हो जाता हैl यह समझना कि आदम अलैहिस्सलाम को सजदा करने के मामले में खुदा शैतान जैसी अदना मखलूक से बहस करता है खुद खुदा की इज्ज़त व जलाल की तौहीन हैl
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