Pages

Monday, November 23, 2015

Heed Pope Francis' Exhortation to Find 'Adequate Interpretation' Of Holy Quran पोप फ्रांसिस के, कुरान की प्रासंगिक, अन्योक्ति-संबंधी छ्न्दो के योग्य व्याख्या तलाश करने की सलाह पर विचार करने का आग्रह


 

सुल्तान शाहीनसंपादकन्यु एज इस्लाम
UNHRC में एजेंडा आइटम 8 पर आम बहस:  वियना घोषणा और कार्य योजना का कार्यान्वयन और उसपर अनुवर्ती कार्यवाही
28 सितंबर 2015
अध्यक्ष महोदय,
शांति के लिए हमारी खोज और इस्लामी आतंकवादियों के खिलाफ लड़ाई  में, परम पावन पोप फ्रांसिस ने एक उल्लेखनीय योगदान दिया है। मैं यहाँ दुनिया भर में मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे लोगों से कहना चाहूँगा कि वे पोप के उपदेश को गंभीरता से लें और उसको मानें, क्योंकि यह केवल  एक अच्छी सलाह ही नहीं बल्कि यही बात पवित्र कुरान में भी  बार-बार कही गई है।
पोप फ्रांसिस ने पवित्र कुरान को "शांति की पवित्र  पुस्तक" बताया है और  मुसलमानों से इसका सही अर्थ समझने के लिए कहा है।
अध्याय 39:  आयत 55, 39:   18; 39: 55; 38: 29; 2: 121; 47: 24, आदि में ,कुरान भी मुसलमानों  से बार-बार आयतों  पर चिंतन करने और इसका सबसे अच्छा अर्थ खोजने के लिए कहता है।
इस प्रकार, कुरान और पोप फ्रांसिस  दोनों ही  मुसलमानों से आयतों  के शाब्दिक अर्थ पर न जाकर इनका सबसे अच्छा अर्थ निकालने  या सबसे पर्याप्त तरीके से व्याख्या करने के लिए कह रहे हैं।
पैगंबर पर थोपे गए युद्ध के दौरान, उनका मार्गदर्शन करने के लिए आई हुई आयतों की संदर्भ देखे बिना व्याख्या और पैगंबर के निधन के दशकों और सदियों बाद एकत्र की गईं हदीस या पैगंबर की बातेों की दिव्य प्रेरणा के संबंध में आम धारणा  से ही आज आतंकवाद, विद्वेष, असहिष्णुता, फासीवादी सर्वोच्चता और स्री जाति से द्वेष का  वर्तमान संकट उत्पन्न हुआ है।
केवल यही नहीं है कि मुसलमानों ने कुरान और हदीस की इन पंक्तियों पर विचार नहीं किया  है। इमाम गजाली, इब्न-ए-तैमिया, अब्दुल वहाब, शाह वलीउल्लाह और शेख सरहिंदी आदि जैसे प्रमुख धर्मशास्त्रियों के भी विचार भी हमें सर्वोच्चता और जिहाद की अंधी गलियों में  ले जातें हैं। जाहिर है यह व्याख्या वर्तमान समय  में पर्याप्त नहीं है।
सबसे अच्छा अर्थ और पर्याप्त व्याख्या खोजने के बाद ही, हम मुसलमान शांति और बहुलवाद, विविधता की स्वीकृति, लिंग समानता, धार्मिक स्वतंत्रता और सभी के लिए मानव अधिकारों वाला एक नया और सुसंगत थियोलोजी विकसित करने में सक्षम हो पाएंगें, जो इस्लाम की शिक्षाओं के  अनुरूप और समकालीन और भविष्य के समाज के लिए उपयुक्त हो।
अध्यक्ष महोदय,
पोप फ्रांसिस का 'उपदेश एक बहुत ही  महत्वपूर्ण समय में आया है।  9/11 के चौदह साल बाद, मुस्लिम जगत अभी भी अपने खेमे के भीतर चरमपंथ के ज्वार को रोकने  के  अपने प्रयासों में डगमगा रहा है। लेकिन समस्या गहरा रही  है और वास्तव में, कट्टरता  दुनिया भर में बढ़ रही है।  स्कूल के युवा लड़कें- लड़कियाँ अपने  घरों से भागकर, दुनिया में  इस्लाम को फैलाने के घोषित लक्ष्य के साथ इराक और सीरिया में अपने क्षेत्र का विस्तार करने के लिए आई एस आई एस द्वारा किए जा रहे तथाकथित जिहाद में शामिल हो रहे हैं। पिछले एक साल में ,100 देशों से तीस हजार नए रंगरूट आईएसआईएस में शामिल हुए हैं।
इस साल की शुरुआत में मक्का में एक आतंकवाद विरोधी सम्मेलन में मिस्र की शीर्ष इस्लामी संस्था जामिया अजहर के प्रमुख ने  कहा कि बढ़ रही कट्टरता के ज्वार को रोकने के लिए मदरसों के पाठ्यक्रम को   संशोधित करना होगा । बड़े इमाम शेख अहमद अल तैय्यब ने कहा कि ऐतिहासिक रूप से कुरान की  ग़लत व्याख्या के कारण इस्लाम की असहिष्णु व्याख्याओं को बढ़ावा मिला है। उन्होंने इस्लामी उग्रवाद के प्रसार से निपटने के लिए धार्मिक शिक्षण में मूलभूत सुधार की मांग की।
जनवरी 2015 को काहिरा में अल-अजहर सम्मेलन केंद्र में  एक टेलीविजन भाषण में मिस्र के राष्ट्रपति सिसी ने इस्लाम में "एक धार्मिक क्रांति 'का आह्वान किया। उन्होंने वहाँ उपस्थित इस्लामी विद्वानों से कहा कि  उग्रवादी सोच बाकी दुनिया के लिए चिंता, खतरे, हत्या और विनाश का एक स्रोत बन गई है।  इसे बदलना होगा - और स्कूलों, मस्जिदों में और रेडियों- टेलीविजन  पर विद्वानों   को इसके विरूद्ध एक प्रमुख भूमिका निभानी होगी। उन्होंने कहा: "आप, इमाम, अल्लाह के सामने जिम्मेदार हो। पूरी दुनिया इंतजार कर रही है  पूरी दुनिया को यह इंतजार है कि आप  क्या कहते हैं क्योंकि इस देश को बर्बाद किया जा रहा है ।
इसी प्रकार,  मोरक्को ने इमामों के प्रशिक्षण के लिए Malekite संस्कार और Ashaarite सिद्धांत पर आधारित एक सहिष्णु और खुले इस्लाम का  एक कार्यक्रम शुरू किया है। नाइजीरिया और अन्य अफ्रीकी देश भी इस्लाम में संयम को बढ़ावा देने के लिए अपने इमामों  को प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए, मोरक्को   भेज रहे   है।
जॉर्डन, इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे अन्य मुस्लिम देशों  भी बढ़ रही कट्टरता को रोकने के लिए जो कर सकते हैं,  वे कर रहे हैं।
भारत सहित दुनिया भर से ये फतवे आते रहते हैं कि इस्लाम शांति का धर्म है और आतंकवाद के साथ इसका कोई लेना देना नहीं  है।  अभी हाल ही में, विभिन्न विचारधाराओं वाले दुनिया भर से  120 उलेमा ने, स्व-घोषित खलीफा अबू बकर अल-बगदादी 'को एक खुला पत्र भेजा है।  14,000 से अधिक शब्दों वाला यह फतवा बगदादी और उसकी ज्यादतियों की निंदा करता है। इससे  "खलीफा" बगदादी के फैसलों की  गलतियों का विस्तार से पता चलता है।
लेकिन, इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह खुले  पत्र से यह भी पता चलता है  कि इस समय माडरेट इस्लाम क्या गलत कर रहा है ।   सही बातों का असर क्यों नहीं हो रहा है, क्यों हमारे बच्चें आईएसआईएस और अन्य आतंकी केंद्रों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। वास्तव में,
अगर हम इन पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि हिंसक इस्लामवादी विचारधारा के समर्थक
इनपर हावी क्यों हो जातें हैं और अपनी बात का औचित्य सिद्ध करने के लिए इनका इस्तेमाल कैसे कर लेते हैं। उदाहरण के लिए:
"... कुरान में सब कुछ सच है, और प्रामाणिक हदीस में सब कुछ दैवीय है।"
यह माडरेट उलेमा द्वारा इस बात की पुष्टि है कि आतंकवादी विचारक द्वारा किसी विशेष प्रसंग में आईं कुरान की सैन्यवादी आयतों और उनके आतंकवादी कार्यवाहियों के हथियार के रूप में पैगंबर (सल्ल.) की हदीसों का प्रयोग उचित है। आतंकवादियों का तर्क भी तो यही है। कुरान और हदीस में कोई अंतर नहीं है; दोनों दैवीय हैं। कुरान की हर आयत का महत्व बराबर है। पैगंबर (सल्ल.) द्वारा कही गई मानी जाने वाली हर हदीस महत्वपूर्ण है। सभी अपरिवर्तनीय, सार्वभौमिक, आने  वाले समय में अनन्त मार्गदर्शन के लिए हैं।
अध्यक्ष महोदय,
माडरेट उलेमा के खुले  पत्र पर विस्तार में चर्चा करने के लिए अनुमति चाहूँगा क्योंकि इससे  पता चलता है  कि कट्टरता को समाप्त करने के हमारे प्रयास क्यों विफल हो रहे हैं और कट्टरता और ज्यादा क्यों बढ़ रही है।
खुला पत्र - अध्याय 13 - जबरदस्ती और मजबूरी  – माडरेट फतवा कहता है: "यह ज्ञात है कि आयत: 'धर्म में कोई बाध्यता नहीं है',  मक्का की विजय के बाद नाज़िल हुई इसलिए, कोई यह दावा नहीं कर सकता है कि इसे निरस्त कर दिया गया है। "  फिर फतवा जबरदस्ती करने के लिए बगदादी की आलोचना करता है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि माडरेट फतवा भी बगदादी और अन्य आतंकवादियों के इस मूल आधार को स्वीकार करता है कि मक्का की विजय से पहले शांतिपूर्ण आयतें जो शांतिपूर्ण इस्लाम की रीढ़ है उन्हें रद्द कर दिया गया है या कम से कम शायद रद्द कर दिया गया होगा और अब युद्ध से संबंधित आतंकी आयतें ही प्रभावी होंगी।
बिंदु 16. हुदुद (सज़ा) में, माडरेट फतवा एक आम नियम स्थापित करता है: " हुदुद दंड कुरान और हदीस में तय किए गए हैं और ये निश्चित रूप से इस्लामी कानून में अनिवार्य हैं" बगदादी की सोच के मूल आधार को स्वीकार करने के बाद ये तथाकथित इस्लामी राज्य में इसके कार्यान्वयन की आलोचना करते हैं। इसमें कहा गया है "हालांकि,इन्हें स्पष्टीकरण, चेतावनी, उपदेश, और सबूत के बिना लागू नहीं किया जाए और इन्हें क्रूर तरीके से लागू नहीं किया जाए।" लेकिन जब  एक बार माडरेट उलेमा ने" 7 वीं शताब्दी बेडुइन आदिवासी अरब संस्कृति पर आधारित हुदुद (सज़ा) के मूल आधार निश्चित रूप से इस्लामी कानून को अनिवार्य   रूप में स्वीकार कर लिया है, तब संयम और उग्रवाद के बीच क्या फर्क रह जाता है।
बिंदु 20 में, माडरेट उलेमा मूर्तियों के विनाश को न्यायोचित ठहराते हैं। खुले पत्र से निम्नलिखित पढ़ें:
"आपके पूर्व नेता अबू उमर अल बगदादी ने कहा: 'हमारी राय में, मूर्ति पूजा के सभी रूपों को नष्ट किया जाना चाहिए  और इन्हें हटाना चाहिए और ऐसे  सभी साधनों को प्रतिबंधित करना अनिवार्य है क्योंकि साहिह मुस्लिम में यह हैः अबू अल हियाज -अल-असदी के मुताविक अली इब्ने अबी तालिब ने कहा: " क्या मैं आपको बताऊँ कि पैगंबर (सल्ल) ऐसा करने के लिए मुझे भेजा: हर एक मूर्ति को उखाड़ने के लिए और हर एक कब्र को समतल करने के लिए।" परन्तु, उसने जो भी कहा वह सही भी हो फिर भी यह पैगंबर (सल्ल) या साथियों की कब्र पर लागू नहीं होगा क्योंकि पैगंबर (सल्ल) और उसके दो साथियों, अबू बकर और उमर के बारे में आम सहमति थी कि उन्हें पैगंबर की मस्जिद के पास की एक इमारत में दफनाया जाएगा।
इसका अर्थ स्पष्टत: यही निकलता है कि माडरेट उलेमा केवल " नबी या  उनके साथियों की कब्र" को नष्ट करने के विरूद्ध हैं (मूर्ति पूजा) की अन्य अभिव्यक्तियों के लिए वे कुछ नहीं कहते समकालीन दुनिया में अंतर-धार्मिक संबंधों को बनाए रखने का यह तरीका नहीं है । सभी सभ्य देशों के लोगों को उनके धर्म का उनके अपने तरीके से पालन करने का अधिकार दिया जाता है। दुनिया के कई हिस्सों में मूर्तियों की पूजा की जाती है। इस्लाम में उदारता का आधार, धार्मिक विविधता की स्वीकृति होनी चाहिए, जैसाकि पवित्र कुरान में हमें सिखाया गया है। इस्लाम के आगमन के13 साल के बाद, जब पैगंबर और उनके साथियों को पहली बार खुद बचाव करने के लिए अनुमति दी गई थी, तब कुरान में उनसे केवलअपनी धार्मिक स्वतंत्रता की ही नहीं बल्कि सभी धार्मिक समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए कहा गया था । ईश्वर अपनी  पूजा केवल मस्जिदों में ही नहीं, बल्कि चर्चों, सभाओं, मठों, मंदिरों में, हर जगह करवाना चाहता है। यहां पवित्र कुरान में अल्लाह के कहे गए शब्दों का अनुवाद दिया गया है।

 "और अल्लाह लोगो में अंतर करता, तो मठों और चर्चों, सभाओं और मस्जिदों में, जहाँ उसकी प्रशंसा की जाती है वे पूरी तरह से नष्ट कर दिए गए होते।"(पवित्र कुरान 22:40)
खुले पत्र का मुद्दा 22  शीर्षक , खलीफा, माडरेट उलेमा बगदादी गुट के इस बुनियादी प्रस्ताव से फिर सहमत हैं कि : " विद्वानों के बीच (इत्तिफाक) है कि खिलाफत उम्मा पर दायित्व है 1924 सीई के बाद से उम्मा में खिलाफत की कमी रही है। इसके बाद ये काफी कड़ी भाषा में बगदादी की मुसलमानों से आम सहमति के अभाव की आलोचना करते और उसपर राजद्रोह, फितना, आदि का आरोप लगाते हैं। लेकिन समस्या वही रहती है। मॉडरेट उलेमा उम्मा के लिए एक खलीफा होने के तथाकथित दायित्व पर बगदादी के साथ सहमत हैं। यह बात आज की दुनिया में बेतुकी है। जाहिर है बगदादी समूह और मॉडरेट उलेमा दोनों आज भी 7 वीं शताब्दी में रह रहे हैं।
क्या इस्लाम में संयम और उग्रवाद के बीच सर्वोच्चता, नफरत और असहिष्णुता, विद्वेष, मध्ययुगीन दंड लगाने में क्रूरता की डिग्री  का ही अंतर है?
स्पष्ट रूप से यहाँ समस्या  यह है कि मॉडरेट उलेमा आदि भी अपने विश्वास की पुष्टि उसी थियोलोजी  से कर रहे है जिससे आईएसआईएस, अल कायदा, तालिबान, बोको हरम या लश्कर-ए-तैय्यबा, जैसे आतंकवादी समूह, अपने विश्वास की पुष्टि करते हैं।
अब सवाल यह  है कि इस्लाम की शुरुआत से आज तक महान धर्मशास्त्रियों द्वारा बताए गए और लगभग सार्वभौमिक स्वीकार किए इस्लाम के आवश्यक तत्व हैं क्या ।
अध्यक्ष महोदय,
मैं मुस्लिम दुनिया का प्रतिनिधित्व कर रहे लोगों से अनुरोध करता हूँ कि वे हमारे इन महान धर्मशास्त्रियों के निम्नलिखित फैसलों को देखें और फैसला करें कि क्या आज की दुनियां में इसकी कोई जगह है और क्या हमारे मदरसों और इस्लामी अध्ययन में इन्हें जारी रखा जाना चाहिए।
अबू हामिद अल गजाली (1058 - 1111), जिन्हें सभी धर्मशास्त्रियों का सबसे बड़ा माना जाता है और बहुत से लोग, पैगंबर मोहम्मद के बाद, इस्लाम के बारे में इनकी ही समझ को मानते हैं:
 "...प्रत्येक व्यक्ति को साल में कम से कम एक बार जिहाद पर जाना चाहिए ... वे उनके [गैर-मुसलमानों] के खिलाफ एक गुलेल का भी प्रयोग कर सकते । जब वे किले में हों, चाहें वे महिलाओं और बच्चों के बीच में हों, तब भी वहाँ आग लगाई जा सकती है और / या उन्हें डुबोया जा सकता है। उनकी बेकार पुस्तकों को नष्ट करना होगा .. जिहादी जो चाहें ले सकते हैं. ईसाइयों और यहूदियों को देना होगा अधिकारी उनकी दाढ़ी पकड़कर, उनके कान के नीचे मार सकता है, जज़िया देते समय धिम्मी का सिर झुका हुआ होना चाहिए। अन्य लोगों के मामले में न्यायविद जज़िया के संबंध में अलग राय रखते हैं।
उन्हें उनकी शराब या चर्च की घंटी को प्रदर्शित करने की अनुमति नहीं हैं उनके घर मुस्लिम के घर से अधिक ऊँचे नहीं हो सकते हैं, चाहें मुस्लिम के घर कितने भी नीचे क्यों न हों। कोई धिम्मी घोड़े या खच्चर की सवारी नहीं कर सकता; वह एक गधे की सवारी तभी कर सकता है,जब उसकी काठी लकड़ी की हो। वे सड़क के अच्छे हिस्से पर नहीं चल सकते । उनके कपड़ों पर महिलाओं के लिए भी एक की पहचान का पैच होना चाहिए, और यहां तक ​​कि उन्हें ये कपड़े स्नान के समय भी पहनने  चाहिए, धिम्मियों को कम बोलना चाहिए,   ... "(किताब अल वागिज़ एफआई फिग़ मधाद अल इमाम अल-सफीi पृष्ठ 186, 190, 199-203)
इमाम इब्न तैमिया (1263 -1328) वहाबी-सलाफी मुस्लिमों के बीच सबसे प्रतिष्ठित हनबली विधिवेत्ता और विद्वान जिनका प्रभाव हाल ही में सऊदी राजशाही द्वारा इनके धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ काफी बढ़ गया है:
 “चूंकि न्यायसंगत युद्ध ही जिहाद है और इसका उद्देश्य है कि धर्म पूरी तरह से ईश्वर का है और ईश्वर का कथन सर्वोच्च है, इसलिए सभी मुस्लिमों के अनुसार इस उद्देश्य के रास्ते में जो भी आता है उनसे लड़ा जाना चाहिए... किताब वालों और पारसियों  से तब तक लड़ा जाना चाहिए जब तक वे मुसलमान न हो जाएं  या जज़िया न दे दें और दीन हीन न हो जाएं। दूसरों के संबंध में, उनसे जज़िया लेने के संबंध में न्यायविदो में मतभेद है। उनमें से अधिकांश इसे गलत मानते हैं" (रूडोल्फ पीटर्स, शास्त्रीय में जिहाद और आधुनिक इस्लाम (प्रिंसटन, न्यू जर्सी के कुछ अंश:। मार्कस वीनर, 1996), पृष्ठ 44-54)
शेख अहमद सरहिन्दी (1564-1624) - भारतीय इस्लामी विद्वान, हनाफी विधिवेत्ता, माना मुजादिद अल्फ-ए-सानी, दूसरी सहस्राब्दी की इस्लाम के पुनर्उद्धारक:
1. " भारत में गाय की बलि इस्लामी प्रथाओं में महानतम है।"
2. "कुफ्र और इस्लाम एक-दूसरे के विरोधी हैं। एक की प्रगति केवल दूसरे की कीमत पर ही संभव है,  इन दो विरोधाभासी धर्मों के बीच दूसरे और सह-अस्तित्व की कीमत पर अकल्पनीय है।
3. "इस्लाम का सम्मान कुफ्र और काफिरों का अपमान करने में निहित है। जो काफिरों का सम्मान करता है वह मुसलमानों का अपमान करता है। "
4. "उन पर जिज़या लगाने का  असली उद्देश्य उनका अपमान करना है। जिज़या के डर के कारण, वे अच्छी तरह से या आराम से न रहें। वे लगातार डरे हुए और भयभीत रहें ।
5. "किसी भी यहूदी का मारा जाना, इस्लाम के लाभ के लिए है।"
(सैईद अतहर अब्बास रिजवी, सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी (आगरा, लखनऊ में उत्तर भारत में मुस्लिम पुनरुत्थानवादी आंदोलनों से कुछ अंश: आगरा विश्वविद्यालय, बालकृष्ण बुक कं, 1965), पृष्ठ.247-50, और योनाहन फ्राइडमैन, शेख़ अहमद सरहिन्दी:एन आउटलाइन आफ हिज थाट एन्ड ए स्टडी आफ हिज इमेज इन द आइज आफ पोस्टेरिटी(मॉन्ट्रियल, क्यूबेक: मैकगिल विश्वविद्यालय, इस्लामी अध्ययन संस्थान, 1971), पृष्ठ 73-74)।।
शाह वलीउल्लाह देहलवी (1703-1762): अत्यधिक सम्माननीय भारतीय विद्वान, धर्मशास्त्री, मुहद्दीस और विधिवेत्ता ।
“नबी का कर्तव्य है कि वे अन्य सभी धर्मों पर इस्लाम का वर्चस्व स्थापित करें और किसी को भी इसके बाहर न रहने दें। चाहें वे इसे स्वेच्छा से या अपमान के बाद स्वीकार करें।। इस प्रकार लोगों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाएगा।
(नीच काफिर (अविश्वासी), उनसे निचले दर्जे के काम लिए जाएं जैसे भार ढ़ोना, फसल कटाई  के काम जिसके लिए जानवरों का इस्तेमाल किया जाता है। पैगम्बर भी काफिरों पर दमन और अपमान के एक कानून लगाता है और उन्हें अपमानित करने के लिए और उन पर हावी होने के लिए जिज़या लगाता है। वे उन्हें किसास, दियात, शादी और सरकारी  प्रशासन में मुसलमानों के बराबर नहीं मानते हैं जिससे ये  प्रतिबंध उन्हें अंततः उन्हें इस्लाम कबूल करने के लिए  मजबूर कर दें।“
हुजातुल्लाहू अल बालिगाह, मात्रा - 1, अध्याय 69, 289 पृष्ठ नहीं)
मोहम्मद इब्न अब्दुल वहाब, (1703- 1792 22 जून):
"चाहें मुसलमान बहुदेववाद से बचें रहें और Muwahhid (भगवान की एकता में विश्वास रखने वाले हों) फिर भी उनकी आस्था तब तक पूर्ण नहीं होगी जब तक वे गैर-मुसलमानों के खिलाफ अपनी शत्रुता और घृणा न प्रदर्शित करें।"
 (मजमूआ-अल-रासैलवाल मासैल-अल-नजदियाह 4/291)
अबुलअला मौदूदी  (25 सितंबर 1903 - 22 सितंबर 1979):
"इस्लाम सम्पूर्ण  पृथ्वी पर ऐसे सभी राज्यों और सरकारों को नष्ट करना चाहता है जो इस्लाम की विचारधारा और कार्यक्रम के विरोधी हैं,चाहें उस देश या राज्य पर कोई भी  शासन कर रहा हो। इस्लाम का प्रयोजन यह परवाह किए बिना अपनी विचारधारा और कार्यक्रम के आधार पर राज्यों की स्थापना करना है कि कौन सा राज्य इस्लाम के मानकों का वाहक है या कौन सा राज्य वैचारिक इस्लामी राज्य की स्थापना की प्रक्रिया में नियमों की अनदेखी कर रहा है।
... "इस्लाम को पूरी पृथ्वी चाहिए - न सिर्फ एक हिस्सा, पूरी कायनात, क्योंकि पूरी मानव जाति को [इस्लाम की] विचारधारा और कल्याण कार्यक्रम का लाभ मिलना चाहिए... इस उद्देश्य के लिए इस्लाम  ऐसे सभी बलों को ळगाना चाहता है, जो  क्रांति ला सकते हैं इन सभी ताकतों का प्रयोग  'जिहाद' है।... इस्लामी जिहाद का उद्देश्य सभी गैर- इस्लामी व्यवस्था को खत्म करना है और इसकी जगह  राज्य शासन की इस्लामी व्यवस्था को स्थापित करना है।
ज़ाहिर है, यह,  हदीसों, शरीयत, कुरान की Tafasir, सीरा पुस्तकों  और ऐसी न जाने कितनी किताबों में दिए गए कानूनी फैसलों का एक  बहुत छोटा सा नमूना है।
अध्यक्ष महोदय,
चरमपंथ और इस्लाम सर्वोच्चता मुस्लिम समाज की नसों में समा गया है । हम सर्वोच्चता की बात करते समय या सुनते समय  इस पर ध्यान तक नहीं देते हैं। उग्रवाद और सर्वोच्चता इस्लामी इतिहास में लगभग शुरू से ही मौजूद है । मुसलमान हदीस के संग्रह और शरीयत के सृजन  से पहले से ही आपस में बुरी तरह से लड़े थे। अब वे हदीस और शरीयत को  दिव्य मानते हैं। मुसलमानों को अभी भी कुरान के प्रासंगिक, उग्रवादी आयतों का कोई इलाज नहीं मिला है, जो अब इंटरनेट के कारण हर  किसी को उपलब्ध हैं। कुरान की सभी आयतों को, उनके संदर्भ के बिना, शाश्वत मानने, और  इन्हें  हर समय के लिए मुसलमानों पर लागू मानने से समस्या का समाधान नहीं होगा। हदीस और शरीयत को दैवीय कहने से आज की समस्या का कोई हल नहीं निकलेगा। मुसलमानों को ऐसा थियोलोजी छोड़ देनी चाहिए जो सिर्फ हिंसा और सर्वोच्चता की ओर जाता है और एक नए थियोलोजी की ओर देखना चाहिए, जो शांति और बहुलवाद को अपनाने वाला और इस्लाम की मूल शिक्षाओं के अनुरूप, और समकालीन और भविष्य के समाज के लिए हो।
नई थियोलोजी कुरान की एक पर्याप्त व्याख्या और कुरान की आयतों के सर्वोत्तम अर्थ का पता लगाने पर  आधारित होना चाहिए, जैसाकि पोप ने सुझाव दिया है और कुरान में बार-बार आह्वान किया गया  है। कुरान की प्रासंगिक आयतों को शाब्दिक रूप मेंपढ़ना छोड़ना होगा और कुरान की ऐसी आवश्यक, विधान आयतों को प्रधानता देनी होगी जिन्हें  सही मायने में शाश्वत महत्व का माना जा सकता है।
हमें उन व्याख्याओं, बड़े धर्मशास्त्रियों के कानूनी फैसलों के विशाल कोष का परित्याग करना होगा , जिसका हम सदियों से सम्मान कर रहे हैं।ला इकराहा फिद्दीन (धर्म में कोई बाध्यता नहीं है) लकुम दीनाकुम वलेय दीन (आप के लिए आपका धर्म मेरे लिए मेरा) हर माडरेट इस्लामी दर्शन की आधारशिला है। ये कुरान की विधान आयतें हैं और इनका महत्व शाश्वत हैं। ये हमारे लिए हर समय के लिए मान्य हैं।
समस्या प्रासंगिक और रूपक आयतों के संबंध में आती है, जब उनका शाब्दिक अर्थ ले लिया जाता है या उनकी व्याख्या अपनी समझ के अनुसार कर ली  जाती है । समस्या तब पैदा होती है जब तथाकथित उग्रवादी आयतों को  उनके शाब्दिक रूप में लिया जाता है और उन्हें सभी मुसलमानों के लिए अल्लाह के उपदेश के रूप में सभी समय के लिए वैध माना जाता है, और आज भी  उनका पालन उसी रूप में किया जाता है। आईएसआईएस नेताओं ने अपने मकसद हो सकते हैं, परन्तु हमारे बच्चें और युवा, लड़के और लड़कियाँ, जो हमारे अच्छे-भले  घरों और निजी स्कूलों को छोड़कर जा रहे हैं  वे इन आतंकवादी, आक्रामकआयतो  का शाब्दिक पढ़ने के बाद और उन्हें सार्वभौमिक समझकर ही ऐसा कर रहे हैं। कुरान की सभी आयतों को सृजित नहीं माना जाता है और मदरसों में सिखाया जाता है कि ये शाश्वत हैं और आने वाले समय में मुसलमानों के मार्गदर्शन के लिए हैं।
कुरान की एक रूपक आयत की यह व्याख्या की जा रही है कि मलहामा (Armageddon) केवल दो साल दूर है । दाईश (इस्लामी राज्य) मलहामा कही जाने वाली अंत समय की लड़ाई लड़ रहा है। यह गलत दावा भी एक कारण है जिसकी वजह से हमारे युवाओं के अंत समय की लड़ाइयों में शामिल होने के लिए दूर जा रहे हैं । इसलिए, मैं सोचता हूँ कि संदर्भ के बिना प्रासंगिक आयतें या रूपक आयतों के शाब्दिक अर्थ को पढ़ना या रूपक आयतों की तोड़-मरोड़ कर की गई व्याख्या ही हमें विनाश की और ले जा रही हैं।
हमें कुरान को अल्लाह द्वारा सृजित ऐसा काम समझना चाहिए, जिसमें वैधानिक,  प्रासंगिक और रूपक आयतें शामिल है जिनका अलग अलग समय और अलग अलग संदर्भों में अलग –अलग अर्थ है। जिसका मतलब है कि हमें कुरान में दी गई इस सलाह का पालन करना चाहिए कि आँख बंद करके कुछ भी स्वीकार करने से पहले हमें उसपर विचार करना चाहिए। पोप फ्रांसिस ने जैसा कहा है कि हमें सबसे अच्छा अर्थ या पर्याप्त व्याख्या खोजने की कोशिश करनी चाहिए। इसका मतलब है,कुरान की सभी आयतों को शाब्दिक रूप से नहीं पढ़ा जाना चाहिए।
मैं फिर से मुस्लिम राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे प्रतिनिधिओं से अनुरोध करता हूँ  कि वे पोप की सलाह और कुरान  में बार-बार दोहराई गई बात को मानें और कुरान के सारभूत आयतों के सही अर्थ को समझे और उनकी सही व्याख्या करें और इस आधार पर एक नया थियोलोजी बनाएं। ऐसा करने के लिए हमारे पास बौद्धिक संसाधन हैं। हमे जरूरत है पुराने थियोलोजी  को छोड़ने के साहस की और शांति और बहुलवाद, सह -अस्तित्व और धार्मिक विविधता की स्वीकृति, और न्याय और सभी के लिए मानव अधिकारों वाले नए थियोलोजी को बनाने की इच्छाशक्ति की।

0 comments: